🔆💥 जय श्री राम 🔆💥
अधूरा स्वप्न
```"सुनिए जी, हम लोग आजतक कहीं घूमने फिरने नहीं गए। आप कार्यालय में खटते रहते हो और मैं इस घरगृहस्थी में।"
रमाजी आज किंचित आवेश में थीं। सुधाकर जी आश्चर्यचकित होकर उन्हें देख रहे थे। आज शीतल शांत पोखरी में जैसे किसी ने पत्थर फेंक दिया था।
वो वातावरण को शांत करने के प्रयास में चुहलबाजी करने लगे थे, "आज सूरज पश्चिम में कैसे उग गया। हमारी हमेशा की शीतल गगरी में आज ये उबाल कैसे आ गया?"
वो और चिढ़ कर बोली थीं, "बात को घुमाइए मत। दस वर्ष हो गए हमारे विवाह को। हम तो गृहस्थी के जाल में उलझ कर रह गए हैं। सब लोग अल्प समय निकाल कर वर्ष दो वर्ष में कुछ घूमना फिरना तो करते ही हैं।"
वो लम्बी श्वास लेकर कराहते से बोले,"मेरी इतनी कमाई भी नहीं है। माँ की दवाइयों और दोनों बच्चों की आधुनिक पढ़ाई के खर्चे उठाते उठाते कमर टूट सी गई है। इन उत्तरदायित्वों से उबरें तो अपने बारे में अवश्य सोचेंगे।"
वो पति से सहमत होते हुए चुप सी हो गईं पर अश्रुपूरित नेत्रों ने तो बगावत ही कर दी थी। तभी एकाएक दूसरे कमरे से अपना पल्लू संभालते हुए अम्माजी आ गई और सुधाकर को डाँटते हुए बोलीं,"कभी तो रमा की भी सुन लिया करो। जो गलतियां मैंने की, वो तुम लोग मत करो।"
दोनों चौंक कर उन्हें देखने लगे थे। वो उनके सिर पर हाथ फेरते हुए कहने लगी," हम और तुम्हारे बाबूजी भी सदा यही सोचते रह गए कि एक बार जीवन की उत्तरदायित्व पूरी हो जाएँ तो मौज करेंगें...घूमेंगे फिरेंगे पर बाबूजी बीच मँझधार में ही छोड़ गए।"
पूरे कमरे में निस्तब्धता सी छा गई थी। उन्होंने आँचल में बँधा अपना कंगन रमा के हाथ पर रख दिया और बोली,"ज्यादा सोचने की आवश्यक नहीं है। अपनी पसंदीदा जगह घूमने का प्रोग्राम बना लो। बच्चों की चिंता मत करना। मैं हूँ ना।"
दोनों हतप्रभ से निःशब्द खड़े थे। तभी रमा बोल पड़ीं,"अम्माजी, कुछ बचत मैंने भी की है। हम सब परसों नैनीताल चलते हैं। "
वो हड़बड़ा कर बोलीं,"तुम दोनों जाओ। बच्चे मेरे पास रहेंगे।"
"नहीं, नहीं! हम सब जाएँगें। आपका अधूरा सपना हमलोग पूरा करेंगें।"-संकलित```
प्रेषक-
दिनेश बरेजा
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