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सोमवार, 29 मार्च 2021

राजस्थान की चित्र शैलियां

 राजस्थान की चित्र शैलियां 


राजस्थान की चित्रकला शैली पर गुजरात तथा कश्मीर की शैलियों का प्रभाव रहा है।


राजस्थानी चित्रकला के विषय

1. पशु-पक्षियों का चित्रण 2. शिकारी दृश्य 3. दरबार के दृश्य 4. नारी सौन्दर्य 5. धार्मिक ग्रन्थों का चित्रण आदि


राजस्थानी चित्रकला शैलियों की मूल शैली मेवाड़ शैली है।


सर्वप्रथम आनन्द कुमार स्वामी ने सन् 1916 ई. में अपनी पुस्तक "राजपुताना पेन्टिग्स" में राजस्थानी चित्रकला का वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया।

भौगौलिक आधार पर राजस्थानी चित्रकला शैली को चार भागों में बांटा गया है। जिन्हें स्कूलस कहा जाता है।


1.मेवाड़ स्कूल:- उदयपुर शैली, नाथद्वारा शैली, चावण्ड शैली, देवगढ़ शैली, शाहपुरा, शैली।


2.मारवाड़ स्कूल:- जोधपुर शैली, बीकानेर शैली जैसलमेर शैली, नागौर शैली, किशनगढ़ शैली।


3.ढुढाड़ स्कूल:- जयपुर शैली, आमेर शैली, उनियारा शैली, शेखावटी शैली, अलवर शैली।


4.हाडौती स्कूल:- कोटा शैली, बुंदी शैली, झालावाड़ शैली।


शैलियों की पृष्ठभूमि का रंग

हरा - जयपुर की अलवर शैली


गुलाबी/श्वेत - किशनगढ शैली


नीला - कोटा शैली


सुनहरी - बूंदी शैली


पीला - जोधपुर व बीकानेर शैली


लाल - मेवाड़ शैली


पशु तथा पक्षी

हाथी व चकोर - मेवाड़ शैली


चील/कौआ व ऊंठ - जोधपुर तथा बीकानेर शैली


हिरण/शेर व बत्तख - कोटा तथा बूंदी शैली


अश्व व मोर:- जयपुर व अलवर शैली


गाय व मोर - नाथद्वारा शैली


वृक्ष

पीपल/बरगद - जयपुर तथा अलवर शैली


खजूर - कोटा तथा बूंदी शैली


आम - जोधपुर तथा बीकानेर शैली


कदम्ब - मेवाड़ शैली


केला - नाथद्वारा शैली


नयन/आंखे

खंजर समान - बीकानेर शैली


मृग समान - मेवाड शैली


आम्र पर्ण - कोटा व बूंदी शैली


मीन कृत:- जयपुर व अलवर शैली


कमान जैसी - किशनगढ़ शैली


बादाम जैसी - जोधपुर शैली


1. मेवाड़ स्कूल

उदयपुर शैली

राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली है।


शैली का प्रारम्भिक विकास कुम्भा के काल में हुआ।


शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम का काल रहा।


महाराणा जगत सिंह के समय उदयपुर के राजमहलों में "चितेरोंरी ओवरी" नामक कला विद्यालय खोला गया जिसे "तस्वीरों रो कारखानों "भी कहा जाता है।


विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतन्त्र नामक ग्रन्थ में पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से मानव जीवन के सिद्वान्तों को समझाया गया है।


पंचतन्त्र का फारसी अनुवाद "कलिला दमना" है, जो एक रूपात्मक कहानी है। इसमें राजा तथा उसके दो मंत्रियों कलिता व दमना का वर्णन किया गया है।


उदयपुर शैली में कलिला और दमना नाम से चित्र चित्रित किए गए थे।


सन 1260-61 ई. में मेवाड़ के महाराणा तेजसिंह के काल में इस शैली का प्रारम्भिक चित्र श्रावक प्रतिकर्मण सूत्र चूर्णि आहड़ में चित्रित किया गया। जिसका चित्रकार कमलचंद था।


सन् 1423 ई. में महाराणा मोकल के समय सुपासनह चरियम नामक चित्र चित्रकार हिरानंद के द्वारा चित्रित किया गया।


प्रमुख चित्रकार - मनोहर लाल, साहिबदीन (महाराणा जगत सिंह -प्रथम के दरबारी चित्रकार) कृपा राम, अमरा आदि।


चित्रित ग्रन्थ - 1. आर्श रामायण - मनोहर व साहिबदीन द्वारा। 2. गीत गोविन्द - साहबदीन द्वारा।


चित्रित विषय -मेवाड़ चित्रकला शैली में धार्मिक विषयों का चित्रण किया गया।


इस शैली में रामायण, महाभारत, रसिक प्रिया, गीत गोविन्द इत्यादि ग्रन्थों पर चित्र बनाए गए। मेवाड़ चित्रकला शैली पर गुर्जर तथा जैन शैली का प्रभाव रहा है।


नाथ द्वारा शैली

नाथ द्वारा मेवाड़ रियासत के अन्र्तगत आता था, जो वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित है।


यहां स्थित श्री नाथ जी मंदिर का निर्माण मेवाड़ के महाराजा राजसिंह न 1671-72 में करवाया था।


यह मंदिर पिछवाई कला के लिए प्रसिद्ध है, जो वास्तव में नाथद्वारा शैली का रूप है।


इस चित्रकला शैली का विकास मथुरा के कलाकारों द्वारा किया गया।


महाराजा राजसिंह का काल इस शैली का स्वर्ण काल कहलाता है।


चित्रित विषय - श्री कृष्ण की बाल लीलाऐं, गतालों का चित्रण, यमुना स्नान, अन्नकूट महोत्सव आदि।


चित्रकार - खेतदान, घासीराम आदि।


देवगढ़ शैली

इस शैली का प्रारम्भिक विकास महाराजा द्वाारिकादास चुडावत के समय हुआ।


इस शैली को प्रसिद्धी दिलाने का श्रेय डाॅ. श्रीधर अंधारे को है।


चित्रकार - बगला, कंवला, चीखा/चोखा, बैजनाथ आदि।


शाहपुरा शैली

यह शैली भीलवाडा जिले के शाहपुरा कस्बे में विकसित हुई।


शाहपुरा की प्रसिद्ध कला फडु चित्रांकन में इस चित्रकला शैली का प्रयोग किया जाता है।


फड़ चित्रांकन में यहां का जोशी परिवार लगा हुआ है।


श्री लाल जोशी, दुर्गादास जोशी, पार्वती जोशी (पहली महिला फड़ चित्रकार) आदि


चित्र - हाथी व घोड़ों का संघर्ष (चित्रकास्ताजू)


चावण्ड शैली


इस शैली का प्रारम्भिक विकास महाराणा प्रताप के काल में हुआ।


स्वर्णकाल -अमरसिंह प्रथम का काल माना जाता है।

चित्रकार - जीसारदीन इस शैली का चित्रकार हैं


नीसारदीन न "रागमाला" नामक चित्र बनाया !


2. मारवाड़


स्कूल

जोधपुर शैली

इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव हैं।


इस शैली का प्रारम्भिक विकास राव मालदेव (52 युद्धों का विजेता) के काल में हुआ।


स्वर्णकाल, जसवंत सिंह प्रथम का काल रहा।


अन्य संरक्षक - मानसिंह, शूरसिंह, अभय सिंह थे।


चित्रित विषय - राजसी ठाठ-बाट, दरबारी दृक्श्य आदि।


चित्रकार - किशनदास भाटी, देवी सिंह भाटी, अमर सिंह भाटी, वीर सिंह भाटी, देवदास भाटी, शिवदास भाटी, रतन भाटी, नारायण भाटी, गोपालदास भाटी, प्रमुख थे।


प्रमुख चित्र - इस चित्रकला शैली में मुख्यतः लोकगाथाओं का चित्रण किया गया। जैसे:-"मूमलदे-निहालदे", ढोला-मारू", उजली-जेठवा"।


किशनगढ़ शैली

किशनगढ़ शैली, किशनगढ के शासक सांवत सिंह राठौड़ के समय फली-फूली।


इस शैली का स्वर्णकाल 1747 से 1764 ई. का समय माना जाता है।


महाराजा सांवत सिंह के समय इस शैली का सर्वश्रेष्ठ चित्र बणी-ठणी को सांवत सिंह के चित्रकार "मोरध्वज निहाल चन्द" द्वारा चित्रित किया गया।


इस शैली के चित्र "बणी-ठणी" पर सरकार द्वारा 1973 ई. में 20 पैसें का डाक टिकट जारी किया जा चुका।


एरिक डिक्सन ने "बणी-ठणी" चित्र की "मोनालिसा" कहा है।


इस शैली को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर दिलाने का श्रेय एरिक डिक्सन तथा अली को दिया जाता है।


किशनगढ़ शैली, का प्रमुख विषय नारी सौंदर्य रहा है।


यह शैली, कागड़ा शैली, से प्रभावित रही है।


अन्य चित्र -चांदनी रात की संगीत गोष्ठी (चित्रकार-अमर चंद)


अन्य चित्रकार - छोटू सिंह व बदन सिंह अन्य प्रमुख चित्रकार है।


किशनगढ के शासक सांवत सिंह अन्तिम समय में राजपाट ढोड़कर-वृदांवन चले गए और कृष्ण भक्ति में लीन हो गए। उन्होने अपना नाम "नागरीदास" रखा तथा 'नागर समुच्चय " नाम से काव्यरचना करने लगे।


बीकानेर शैली

यह शैली, मुगल शैली, से प्रभावित रही।


इस शैली, का प्रारम्भिक विकास रायसिंह राठौड़ के समय हुआ।


इस शैली, का स्वर्णकाल महाराजा अनूपसिंह का काल माना जाता है।


इस शैली, का प्रयोग आला-गिला कारीगरी तथा उस्ता कला में किया गया।


इस शैली, के अन्तर्गत महाराजा राय सिंह के समय प्रसिद्ध चित्रकार हामित रूकनुद्दीन थे।


महाराजा गज के समय शाह मोहम्मद (लाहौर से लाए गए)


महाराजा अनूपसिंह के प्रमुख दरबारी चित्रकार हसन, अल्लीरज्जा और रामलाल थे।


अन्य चित्रकार - मुन्नालाल व मस्तलाल अन्य प्रमुख चित्रकार थे।


इस शैली में चित्रण का विषय दरबारी दृश्य, बादल दृश्य थे।


इस शैली में पुरूष आकृति दाड़ी मूंह युक्त तथा उग्रस्वभाव वाली दर्शाई गई।


इस शैली, का सबसे प्राचीन चित्र "भागवत पुराण" महाराजा रायसिंह के समय चित्रित किया गया।


जैसलमेर शैली

राज्य की एक मात्र शैली है जिस पर किसी अन्य शैली का प्रभाव नहीं है।


इस शैली में रंगों की अधिकता देखने को मिलती है।


इस शैली का प्रसिद्ध चित्र "मूमल" है।


"मूमल" को 'मांड की मोनालिसा' कहा जाता है।


इस शैली का प्रारम्भिक विकास हरराय भाटी के काल में हुआ।


इस शैली का स्वर्णकाल अखैराज भाटी का काल माना जाता है।


नागौर शैली

इस शैली में धार्मिक चित्रण किया गया है।


नागौर शैली में हल्के /बुझे हुए रंगों का प्रयोग किया गया है।


3. ढूढाड़ स्कूल

अलवर शैली

अलवर शैली पर ईरानी, मुगल तथा जयपुर शैली का प्रभाव है।


महाराजा विनय सिंह का काल इस शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।


महाराजा शिवदान के समय इस शैली में वैश्या या गणिकाओं पर आधारित चित्र बनाए गए, अर्थात कामशास्त्र पर आधारित चित्र इस शैली की निजी विशेषता है।


इस शैली में हाथी दांत की प्लेटों पर चित्रकारी का कार्य चित्रकार मूलचंद के द्वारा किया गया।


बसलो चित्रण अर्थात् बार्डर पर सुक्ष्म चित्रण तथा योगासन इस शैली के प्रमुख विषय है।


अलवर शैली के चित्रों की पृष्ठ भूमि में शुभ्र आकाश का तथा सफेद बादलों का दृश्य दिखाया गया है।


प्रमुख चित्रकार - मुस्लिम संत शेखसादी द्वारा रचित ग्रन्थ मुस्लिम पर आधारित चित्र गुलाम अली तथा बलदेव नामक चित्रकारों द्वारा तैयार किए गए। डालचंद, सहदेव व बुद्धाराम अन्य प्रमुख चित्रकरण है।


आमेर शैली

इस शैली मै प्राकृतिक रंगों की प्रधानता है।


इस शैली का प्रारम्भिक विकास मानसिंह- प्रथम के काल में हुआ।


मिर्जा राजा जयसिंह का काल आमेर चित्रकला शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।


आमेर चित्रकला शैली का प्रयोग आमेर के महलों में भिति चित्रण के रूप में किया गया है। इस शैली पर मुगल शैली का सर्वाधिक प्रभाव रहा।


प्रमुख चित्र - 1. बिहारी सतसई (जगन्नाथ -चित्रकार) 2.आदि पुराण (पुश्दत्त -चित्रकार )


जयपुर शैली

जयपुर शैली का प्रारम्भिक विकास सवाई जयसिंह के समय हुआ।


जयपुर शैली का स्वर्णकाल सवाई प्रताप सिंह का काल माना जाता है।


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