🔆💥 जय श्री राम 🔆💥
“ पापा का प्यार ” कहानी ~ नमः वार्ता
```पाँच दिन की छुट्टियां बिता कर जब ससुराल पहुँची तो पति घर के सामने स्वागत में खड़े थे।
अंदर प्रवेश किया तो छोटे से वाहन कक्ष में चमचमाती गाड़ी खड़ी थी स्विफ्ट डिजायर!
मैंने नेत्रों ही नेत्रों से पति से प्रश्न किया तो उन्होंने गाड़ी की चाबियाँ थमाकर कहा:-"कल से तुम इस गाड़ी में विद्यालय जाओगी प्रधानाचार्य महोदया!"
"ओह प्रभू!!''
प्रसन्नता इतनी थी कि मुँह से और कुछ निकला ही नही। बस जोश और भावावेश में मैंने तहसीलदार महोदय को एक जोरदार झप्पी देदी और अमरबेल की तरह उनसे लिपट गई। उनका उपहार देने का मार्ग भी भिन्न हुआ करता है।
सब कुछ चुपचाप और अचानक!!
स्वयं के पास पुरानी इंडिगो है और मेरे लिए और भी महंगी खरीद लाए।
6 वर्ष के विवाहित जीवन में इस व्यक्ति ने न जाने कितने उपहार दिए। गिनती करती हूँ तो थक जाती हूँ। निष्ठावान है रिश्वत नही लेते । किंतु व्ययी इतने कि उधार के पैसे लाकर उपहार खरीद लाते है।
लम्बी सी झप्पी के उपरांत मैं अलग हुई तो गाडी का निरक्षण करने लगी। मेरा पसंद का रंग था। बहुत सुंदर थी।
फिर दृष्टि उस स्थान गई जहाँ मेरी स्कूटी खड़ी रहती थी।
हठात! वो स्थान तो रिक्त था।
"स्कूटी कहाँ है?"
मैंने चिल्लाकर पूछा।"बेच दी मैंने, क्या करना अब उस व्यवस्था का? वाहन कक्ष में इतनी स्थान भी नही है।"
"मुझ से बिना पूछे बेच दी तुमने??"
"एक स्कूटी ही तो थी; पुरानी सी। क्रोधित क्यूँ होती हो?"
उसने भावहीन स्वर में कहा तो मैं चिल्ला पड़ी:-"स्कूटी नही थी वो।
मेरा जीवन था । मेरी धड़कनें बसती थी उसमें। मेरे पापा की एकमात्र निशानी थी मेरे पास।
मैं तुम्हारे उपहार का सम्मान करती हूँ किंतु उस स्कूटी की कीमत पर नही। मुझे नही चाहिए तुम्हारी गाड़ी। तुमने मेरी सबसे प्यारी चीज बेच दी। वो भी मुझसे बिना पूछे।'"
मैं रो पड़ी। शोर सुनकर मेरी सास बाहर निकल आई।
उसने मेरे सर पर हाथ फेरा तो मेरी रुलाई और फुट पड़ी।
"रो मत बेटा, मैंने तो इससे पहले ही कहा था।
एक बार बहु से पूछ ले। किंतु बेटा बड़ा हो गया है। तहसीलदार!! माँ की बात कहाँ सुनेगा?
किंतु तू रो मत।
और तू खड़ा-खड़ा अब क्या देख रहा है वापस ला स्कूटी को।"
तहसीलदार महोदय ग्रीवा झुकाकर आए मेरे पास।
रोते हुए नही देखा था मुझे पहले कभी। प्यार जो बहुत करते हैं।
याचना भरे स्वर में बोले:- क्षमा करें प्रिये! मुझे क्या पता था वो स्कूटी का लगाव इतना है। मैंने तो कबाड़ी को बेचा है सिर्फ सात हजार में। वो अल्प मूल्य पर, किंतु पैसे भी मेरे किस काम के थे? यूँ ही बेच दिया कि गाड़ी मिलने के उपरांत उसका क्या करोगी? तुम्हे प्रसन्नता देनी चाही थी अश्रु नही। अभी जाकर लाता हूँ। " फिर वो चले गए।
मैं अपने कमरे में आकर बैठ गई। जड़वत सी।
पति का भी क्या दोष था।
हाँ एक दो बार उन्होंने कहा था कि ऐसे बेच कर नई ले ले।
मैंने भी हँस कर कह दिया था कि नही यही ठीक है।
लेकिन अचानक स्कूटी न देखकर मैं बहुत ज्यादा भावुक हो गई थी। होती भी कैसे नही।
वो स्कूटी नही "क्षमता" थी मेरे पापा की।
जब मैं छात्रा जीवन में थी तब मेरे साथ में पढ़ने वाली एक लड़की नई स्कूटी लेकर कॉलेज आई थी। सभी सहेलियाँ उसे बधाई दे रही थी। तब मैंने उससे पूछ लिया:- "कितने की है?
उसने तपाक से जो उत्तर दिया उसने मेरे प्राण ही निकाल ली थी:-" कितने की भी हो? तेरी और तेरे पापा की क्षमता से बाहर की है।"
अचानक पैरों में जान नही रही थी। सब लड़कियाँ वहाँ से चली गई थी किंतु मैं वही बैठी रह गई। किसी ने मेरे हृदय का दर्द नही देखा था। मुझे कभी यह अनुभव ही नही हुआ था कि वे सब मुझे अपने से भिन्न "गरीब"समझती थी। किंतु उस दिन लगा कि मैं उनमे से नही हूँ।
घर आई तब भी अपनी उदासी छुपा नही पाई। माँ से लिपट कर रो पड़ी थी। माँ को बताया तो माँ ने बस इतना ही कहा" छिछोरी लड़कियों पर ज्यादा ध्यान मत दे! पढ़ाई पर ध्यान दे!"
रात को पापा घर आए तब उनसे भी मैंने पूछ लिया:-"पापा हम गरीब हैं क्या?"
तब पापा ने सर पे हाथ फिराते हुए कहा था "हम गरीब नही हैं बिटिया, बस हमारा समय गरीब चल रहा है।"
फिर अगले दिन भी मैं कॉलेज नही गई। न जाने क्यों ह्रदय नही था। शाम को पापा जल्दी ही घर आ गए थे। और जो लाए थे वो उतनी बड़ी प्रसन्नता थी मेरे लिए कि शब्दों में बता नही सकती।
एक प्यारी सी स्कूटी। तितली सी। सोन चिड़िया सी। नही, एक सफेद परी सी थी वो। मेरे सपनों की उड़ान। मेरे प्राण थी वो। सच कहूँ तो उस रात मुझे नींद नही आई थी। मैंने पापा को कितनी बार धन्यवाद बोला स्मरण नही है।
स्कूटी कहाँ से आई ? पैसे कहाँ से आए ये भी नही सोच सकी अधिक प्रसन्नता में। फिर दो दिन मेरा प्रशिक्षण चला। साईकिल चलानी तो आती थी। स्कूटी भी चलानी सीख गई।
पाँच दिन उपरांत कॉलेज पहुँची। अपने पापा की "क्षमता" के साथ। एक राजकुमारी की तरह। जैसे अभी स्वर्णजड़ित रथ से उतरी हो। सच पूछो तो मेरी जिंदगी में वो दिन प्रसन्नता का सबसे बड़ा दिन था। मेरे पापा मुझे कितना चाहते हैं सबको पता चल गया।
किंतु कुछ दिनों उपरांत एक सहेली ने बताया कि वो पापा के साईकिल रिक्सा पर बैठी थी। तब मैंने कहा नही यार तुम किसी और के साईकिल रिक्शा पर बैठी हो। मेरे पापा का अपना टेम्पो है।
किंतु भीतर ही भीतर मेरा मस्तिष्क झनझना उठा था। क्या पापा ने मेरी स्कूटी के लिए टेम्पो बेच दिया था। और छः महीने से ऊपर हो गए। मुझे पता भी नही लगने दिया।
शाम को पापा घर आए तो मैंने उन्हें ध्यान से देखा। आज इतने दिनों उपरांत ध्यान से देखा तो जान पाई कि दुबले पतले हो गए है। घ्यान से देखने का समय ही नही मिलता था। रात को आते थे और सुबह अँधेरे ही चले जाते थे। टेम्पो भी दूर किसी मित्र के घर खड़ा करके आते थे।
कैसे पता चलता बेच दिया है।
मैं दौड़ कर उनसे लिपट गई!:-"पापा आपने ऐसा क्यूँ किया?" बस इतना ही मुख से निकला। रोना जो आ गया था।
" तू मेरा सम्मान है बिटिया, तेरे नेत्र में अश्रु देखूँ तो मैं कैसा बाप? चिंता ना कर बेचा नही है। गिरवी रखा था। इसी महीने छुड़ा लूँगा।"
"आप दुनिया के अच्छे पापा हो। इसे सिद्ध करना आवश्यक कहाँ था? मैंने स्कूटी मांगी कब थी? क्यूँ किया आपने ऐसा? छः महीने से पैरों से सवारियां ढोई आपने। ओह पापा आपने कितनी समस्याएं झेली मेरे लिए ? मैं पागल कुछ समझ ही नही पाई ।" और मैं दहाड़े मार कर रोने लगी फिर हम सब रोने लगे। मेरे दोनों छोटे भाई। मेरी मां भी।
पता नही कब तक रोते रहे ।
वो स्कूटी नही थी मेरे लिए। मेरे पापा के रक्त से सींचा हुआ उड़नखटोला था मेरा। और उसे किसी कबाड़ी को बेच दिया। दुःख तो होगा ही।
अचानक मेरी तन्द्रा टूटी। एक जानी-पहचानी सी आवाज कानो में पड़ी। फट-फट-फट,, मेरा उड़नखटोला मेरे पति देव यानी तहसीलदार महोदय चलाकर ला रहे थे। और चलाते हुए एकदम बुद्दू लग रहे थे।
किंतु प्यारे से बुद्दू।संकलित```
ज्ञानरहित भक्ति-अंधविश्वास
भक्तिरहित ज्ञान-नास्तिकता
प्रेषक-
#दिनेश बरेजा
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