🔆💥 जय श्री राम 🔆💥
“सुजान सिंह-गौरवमयी गाथा ” ~ नमः वार्ता
7 मार्च 1679 ईo की बात है,
ठाकुर सुजान सिंह अपनी विवाह की बारात लेकर जा रहे थे, 22वर्ष के सुजान सिंह किसी देवता की प्रकार लग रहे थे।
ऐसा लग रहा था मानो देवता अपनी बारात लेकर जा रहे हों..
उन्होंने अपने दुल्हन का मुख भी नहीं देखा था, शाम हो चुकी थी इसलिए रात्रि विश्राम के लिए "छापोली" में पड़ाव डाल दिये।
कुछ ही क्षणों में उन्हें गायों में लगे घुंघरुओं की आवाजें सुनाई देने लगी, आवाजें स्पष्ट नहीं थीं, पुनः भी वे सुनने का प्रयास कर रहे थे, मानो वो आवाजें उनसे कुछ कह रही थी।
सुजान सिंह ने अपने लोगों से कहा, संभवतः ये चरवाहों की आवाज है थोड़ा सुनो वे क्या कहना चाहते हैं।
गुप्तचरों ने सूचना दी कि युवराज ये लोग कह रहे है कि कोई फौज "देवड़े" पर आई है। वे चौंक पड़े और पुनः कहा कि कैसी फौज, किसकी फौज, किस मंदिर पे आयी है ?
उत्तर आया "युवराज ये औरंगजेब की बहुत ही विशाल सेना है, जिसका सेनापति दराबखान है, जो खंडेला के बाहर पड़ाव डाल रखी है।
कल खंडेला स्थित श्रीकृष्णमंदिर को तोड़ दिया जाएगा ।
निर्णय हो चुका था, एक ही पल में सब कुछ परिवर्तित हो गया। विवाह के प्रसन्ननुमा चहरे अचानक कठोर हो चुके थे। कोमल शरीर वज्र के समान कठोर हो चुका था।
जो बाराती थे, वे सेना में परिवर्तित हो चुके थे, वे अपने सेना के लोगों से विचार विमर्श करने लगे
तब उनको पता चला कि उनके साथ केवल 70 सेना थी।
तब वे रात्रि के समय में बिना एक पल गंवाए उन्होंने पास के गांव से कुछ व्यक्ति इकठ्ठे कर लिए।
निकट 500 घुड़सवार अब उनके पास हो चुके थे। अचानक उन्हें अपनी पत्नी की स्मरण आयी, जिसका मुख भी वे नहीं देख पाए थे, जो डोली में बैठी हुई थी।
क्या बीतेगी उसपे, जिसने अपनी लाल जोड़े भी ठीक से नहीं देखी हो। वे प्रकार-प्रकार के विचारों में खोए हुए थे, तभी उनके कानों में अपनी माँ को दिए वचन स्मरण आये, जिसमें उन्होंने राजपूती धर्म को ना छोड़ने का वचन दिया था, उनकी पत्नी भी सारी बातों को समझ चुकी थी, डोली के ओर उनकी दृष्टि गयी, उनकी पत्नी महँदी वाली हाथों को निकालकर संकेत कर रही थी ।
मुख पे प्रसन्नता के भाव थे, वो एक सच्ची क्षत्राणी के कर्तब्य निभा रही थी, मानो वो स्वयं तलवार लेकर दुश्मन पे टूट पड़ना चाहती थी, परंतु ऐसा नहीं हो सकता था ।
सुजान सिंह ने डोली के पास जाकर डोली को और अपनी पत्नी को प्रणाम किये और कहारों और नाई को डोली सुरक्षित अपने राज्य भेज देने का आदेश दे दिया और स्वयं खंडेला को घेरकर उसकी चौकसी करने लगे ।
लोग कहते हैं कि मानो स्वयं कृष्ण उस मंदिर की चौकसी कर रहे थे, उनका मुखड़ा भी श्रीकृष्ण की ही प्रकार चमक रहा था।
8 मार्च 1679 को दराबखान की सेना आमने सामने आ चुकी थी, महाकाल भक्त सुजान सिंह ने अपने इष्टदेव को स्मरण किये और हर हर महादेव के जयघोष के साथ 10 हजार की मुगल सेना के साथ सुजान सिंह के 500 लोगो के बीच घनघोर युद्ध आरम्भ हो गया ।
सुजान सिंह ने दराबखान को मारने के लिए उसकी ओर लपके और 40 मुगल सेना को मौत के घाट उतार दिए । ऐसे पराक्रम को देखकर दराबखान पीछे हटने में ही भलाई समझी, लेकिन ठाकुर सुजान सिंह रुकनेवाले नहीं थे ।
जो भी उनके सामने आ रहा था वो मारा जा रहा था । सुजान सिंह साक्षात मृत्यु का रूप धारण करके युद्ध कर रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो स्वयं महाकाल ही युद्ध कर रहे हों ।
इस बीच कुछ लोगों की दृष्टि सुजान सिंह पे पड़ी, लेकिन ये क्या सुजान सिंह के शरीर में सिर तो है ही नहीं...
लोगों को घोर आश्चर्य हुआ, लेकिन उनके अपने लोगों को ये समझते देर नहीं लगी कि सुजान सिंह तो कब के मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं ।
ये जो युद्ध कर रहे हैं, वे सुजान सिंह के इष्टदेव हैं । सबों ने मन ही मन अपना शीश झुककर इष्टदेव को प्रणाम किये ।
अब दराबखान मारा जा चुका था, मुगल सेना भाग रही थी, लेकिन ये क्या, सुजान सिंह घोड़े पे सवार बिना सिर के ही मुगलों का संहार कर रहे थे ।
उस युद्धभूमि में मृत्यु का ऐसा तांडव हुआ, जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों की 7 हजार सेना अकेले सुजान सिंह के हाथों मारी जा चुकी थी । जब मुगल की बची खुची सेना पूर्ण रूप से भाग गई, तब सुजान सिंह जो केवल शरीर मात्र थे, मंदिर का रुख किये ।
अतीतकार कहते हैं कि देखनेवालों को सुजान के शरीर से दिव्य प्रकाश का तेज निकल रहा था, एक अजीब विश्मित करनेवाला प्रकाश निकल रहा था, जिसमें सूर्य की रोशनी भी मन्द पड़ रही थी ।
ये देखकर उनके अपने लोग भी घबरा गए थे और सबों ने एक साथ श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे, घोड़े से नीचे उतरने के उपरांत सुजान सिंह का शरीर मंदिर के प्रतिमा के सामने जाकर लुढ़क गया और एक शूरवीर योद्धा का अंत हो गया ।
भारतीय संस्कृति की इस गौरवमयी गाथा का उल्लेख किसी भी पाठ्यपुस्तक में नही किया गया, झूठे,पाखंडी sickउलर अतीतकारों को डर था कि कहीं इससे हम हिंदुओं का स्वाभिमान पुनरजागृत तथा पूर्वजों की साहसिक बलिदान से हमारा सोया पराक्रम जागृत न हो जाये-दिनेश बरेजा
प्रेषक-
दिनेश बरेजा
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