अनुवादक

मंगलवार, 24 मई 2022

“बातचीत से पिघलते रिश्ते ” कहानी ~ नमः वार्ता


🔆💥 जय श्री राम 🔆💥
“बातचीत से पिघलते रिश्ते ” कहानी ~ नमः वार्ता

परेशान इंद्र एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगा रहे थे। क्रोध में बक्के जाने वाले शब्दों को शिल्पी लाख चाहने पर भी सुन नहीं पा रही थी। बस, चेहरे के भावों से अनुमान भर ही लगा पाई कि वे हालात को कोस रहे हैं। अमन की कारस्तानियों से दुखी इंद्र का जब परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं रहता था तो वह आसपास मौजूद किसी भी व्यक्ति में कोई न कोई कारण ढूंढ़ कर उसे ही कोसना शुरू कर देते।
यह आज की बात नहीं थी। अमन का यों देर रात घर आना, घर आ कर लैपटाप पर व्यस्त रहना, अब प्रतिदिन की दिनचर्या बन गई थी। कान से फोन चिपका कर यंत्रवत रोबोट की प्रकार उस के हाथ थाली से मुंह में रोटी के कौर पहुंचाते रहते। उस की दिनचर्या में मौजूद रिश्तों के केवल नाम भर ही थे, उन के प्रति न कोई भाव था न भाषा थी।

बच्चा से मांबाप को क्या चाहिए होता है, केवल प्यार, कुछ समय। लेकिन अमन को देख कर यों लगता कि समय रेत की मानिंद मुट्ठी से इतनी जल्दी फिसल गया कि मैं न तो अमन की तुतलाती बातों के रस का आनंद ले पाई और न ही उस के नन्हे कदम आंखों को रिझा पाए. उसे किशोर से युवा होते देखती रही। विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले अमन के दिल पर मैं भी हाथ कहां रख पाई।

वह जब भी स्कूल की या मित्रों की कोई भी बात मुझे बताना चाहता तो मैं हमेशा रसोई में अपनी व्यस्तता का बहाना बना कर उसे उस के पापा के पास भेज देती और इंद्र उसे उस के दादा के पास। समय ही नहीं था हमारे पास उस की बातें, शिकायतें सुनने का।

आज अमन के पास समय नहीं है अपने अधेड़ होते मांबाप के पास बैठने का। आज हम दोनों अमन को दोषी मानते हैं। इंद्र तो उसे नई पीढ़ी की संज्ञा दे कर बिगड़ी हुई बच्चा कहते हैं, लेकिन वास्तव में दोषी कौन है? हम दोनों, इंद्र या मैं या केवल अमन।

लेकिन सप्ताह के 6 दिन तक रूखे रहने वाले अमन में शनिवार की रात से मैं प्रशंसनीय परिवर्तन देखती। तब भी वह अपना अधिकतर समय मित्रों की टोली में ही बिताना पसंद करता। रविवार की सुबह घर से निकल कर 4-5 घंटे गायब रहना उस के लिए मामूली बात थी

‘न ढंग से नाश्ता करता है, न रोटी खाता है’ अपने में सोचतेसोचते मैं फुसफुसा रही थी और मेरे फुसफुसाए शब्दों की ध्वनि इतनी साफ थी कि तिलमिलाए इंद्र अपने अंदर की कड़वाहट उगलने से स्वयं को रोक नहीं पाए। जब आवेग नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो हानि निश्चित होती है। बात जब भावोंविचारों में आवेग की हो और सद्व्यवहार के बंधन टूटने लगें तो क्रोध भी अपनी सीमाएं तोड़ने लगता है।

मेरी बुदबुदाहट की तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्र ने कहा, ‘‘हां हां, तुम हमेशा खाने की थाली सजा कर दरवाजे पर खड़ी रह कर आरती उतारो उस की। जबजब वह घर आए, चाहो तो नगाड़े पीट कर पड़ोसियों को भी सूचित करो कि हमारे यहां अतिविशिष्ट व्यक्ति पधारे हैं। कहो तो मैं भी डांस करूं, ऐसे…’’
कहतेकहते आवेश में आ कर इंद्र ने जब हाथपैर हिलाने शुरू किए तो मैं अचंभित सी उन्हें देखती रही। सच ही तो था, क्रोध व्यक्ति से सही बात कहने व संतुलित व्यवहार करने की ताकत समाप्त कर देता है। मुझे इंद्र पर नहीं अपने पर क्रोध आ रहा था कि क्यों मैं ने अमन की बात शुरू की।
इंद्र का स्वभाव जल्दी उखड़ने वाला रहा है, लेकिन उन के क्रोध के चलते मैं भी चिड़चिड़ी होती गई. इंद्र हमेशा अमन के हर काम की चीरफाड़ करते रहते। शुरू में अपनी गलती मान कर इस काम में सुधार करने वाले अमन को भी लगने लगा कि उस के काम की, आलोचना केवल आलोचना के लिए की जा रही है और इसे अधिक महत्त्व देना व्यर्थ है।

यह सब सोचतेसोचते मैं ने अपने मस्तिष्क को झटका। तभी विचार आया कि बस, बहुत हो गया। अब इन सब से मुझे स्वयं को ही नहीं, इंद्र को भी बाहर निकालना होगा।

आज सुबह से क्रोध न भड़के, इसलिए मैं ने इंद्र को पनीर परोसते हुए कहा, ‘‘आप यों तो उस के कमरे में जा कर बारबार देखते हो कि वह ठीक से सोया है या नहीं, और वैसे छोटीछोटी बातों पर बच्चों की प्रकार तुनक जाते हो। आप के मित्र राजेंद्र भी उस दिन समझा रहे थे कि क्रोध आए तो बाहर निकल जाया करो।

‘‘बस, अब बहुत हो गया बच्चे के पीछे पुलिस की प्रकार लगे रहना। जीने दो उसे अपनी जीवन, ठोकर खा कर ही तो संभलना जानेगा’’ मैं ने समझाने की प्रयास की।

‘‘ऐसा है शिल्पी मैडम, जब तक जिंदा हूं, आंखों देखी मक्खी नहीं निगली जाती. घर है यह, सराय नहीं कि जब चाहे कोई अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार मुंह उठाए चला आए और देहरी पर खड़े दरबान की प्रकार हम उसे सैल्यूट मारें,’’ दोनों हाथों को जोर से जोड़ते हुए इंद्र जब बोले तो मुझे उन के उस अंदाज पर हंसी आ गई।

रविवार को फिर अमन 10 बजे का चाय पी कर निकला और 1 बजने को था, पर वह अभी तक नदारद था। बहुत मन करता है कि हम सब एकसाथ बैठें, लेकिन इस नीड़ में मैं ने हमेशा एक सदस्य की कमी पाई। कभी इंद्र की, कभी अमन की। इधर हम पतिपत्नी व उधर मेरे बूढ़े सासससुर की आंखों में एकदूसरे के साथ बैठ कर भरपूर समय बिताने की लालसा के सपने तैरते ही रह जाते।

अपनी सास गिरिजा के साथ बैठी उदास मन से मैं दरवाजे की ओर टकटकी लगाए देख रही थी। आंखों में रहरह कर अश्रु उमड़ आते, जिन्हें मैं बड़ी सफाई से पोंछती जा रही थी कि तभी मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मन को भीगी लकड़ी की प्रकार मत बनाओ कि धीरेधीरे सुलगती रहो। अमन के नासमझ व्यवहार से जी हलका मत करो.’’
‘‘मांजी, अभी विवाह होगी उस की. आने वाली बहू के साथ भी अमन का व्यवहार…’’
शिल्पी की बात को बीच में ही रोक कर समझाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘आने वाले कल की चिंता में तुम व्यर्थ ही नई समस्याओं को जन्म दे रही हो। कभी व्यक्ति हालात के परिणाम कुछ सोचता है लेकिन उन का दूसरा ही रूप सामने आता है। नदी का जल अनवरत बहता रहता है लेकिन वह रास्ते में आने वाले पत्थरों के बारे में पहले से सोच कर बहना तो रोकता नहीं न। ठीक वैसे ही व्यक्ति को चलना चाहिए इसलिए पहले से परिणामों के बारे में सोच कर मस्तिष्क का बोझ व्यर्थ में मत बढ़ाओ’’

‘‘पर मांजी, मैं अपने को सोचने से मुक्त नहीं कर पाती। कल यदि अपनी पत्नी को भी समय न दिया और इसी प्रकार से उखड़ाउखड़ा रहा तो ऐसे में कोई कैसे एडजस्ट करेगा?

‘मैं समझ नहीं पा रही, वह हम से इतना कट क्यों रहा है। क्या आफिस में, अपने फ्रेंड्स सर्कल में भी वह इतना ही कोरा होगा? मांजी, मैं उस के मित्र निखिल से इस का कारण पूछ कर ही रहूंगी संभवतः उसे कुछ पता हो। अभी तक मैं टालती आ रही थी लेकिन अब जानना चाहती हूं कि कुछ  वर्ष पहले तक जिस के हंसीठहाकों से घर भरा रहता था, अचानक उस के मुंह पर ताला कैसे लग गया?

‘‘इंद्र का व्यवहार यदि उसे कचोट रहा है बेटी, तो इंद्र तो शुरू से ही ऐसा रहा है. डांटता है तो प्यार भी  करता है,’’ अब मां भी कुछ चिंतित दिखीं, ‘‘शिल्पी, अब जब तुम ने ध्यान दिलाया है तो मैं भी गौर कर रही हूं, नहीं तो मैं भी इसे पढ़ाई की टेंशन समझती थी…’’

बातों के सिलसिले पर डोरबेल ने कुछ देर के लिए रोक लगा दी।
लगभग 3 बजे अमन लौट कर आया था।
‘‘आप लोग मुझे यों घूर क्यों रहे हो?’’ अमन ने कमरे में घुसते हुए दादी और मां को अपनी ओर देखते हुए पा कर पूछा।
अमन के ऐसा पूछते ही मेरा संयम फिर टूट गया, ‘‘कहां चले गए थे आप? कुछ ठौरठिकाना होता है? बाकी दिन आप का आफिस, आज आप के मित्र। कुछ घर वालों को बताना आवश्यक समझते हैं आप या नहीं?’’ मैं जबजब क्रोध में होती तो अमन से बात करने में तुम से आप पर उतर आती।

लेकिन बहुत ही संयत स्वर में मुझे दोनों कंधों से पकड़ कर गले लगा कर अमन बोला, ‘‘ओ मेरी प्यारी मां, आप तो क्रोध में पापा को भी मात कर रही हो। चलोचलो, क्रोध को वाशबेसिन में थूक आएं,’’ और हंसतेहंसते दादी की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘दादी, गया तो मैं सैलून था, बाल कटवाने। सोचा, आज अच्छे से हेड मसाज भी करवा लूं पूरे हफ्ते काम करते हुए नसें खिंचने लगती हैं। एक तो इस में देर हो गई और ज्यों ही सैलून से निकला तो लव मिल गया।

‘‘आज उस की वाइफ घर पर नहीं थी तो उस ने कहा कि यदि मैं उस के साथ चलूं तो वह मुझे बढिया नाश्ता बना कर खिलाएगा। मां, तुम तो जानती हो कि कल से वही भागादौड़ी। हां, यह गलती हुई कि मुझे आप को फोन कर देना चाहिए था,’’ मां के गालों को बच्चे की प्रकार पुचकारते हुए वह नहाने के लिए घुसने ही वाला था कि पापा का रोबीला स्वर सुन कर रुक गया।

बच्चे, अच्छा मूर्ख बना रहे हो। आधा दिन यों ही सही तो आधा दिन किसी और प्रकार से, हो गया समाप्त पूरा दिन। संडे संभवतः तुम्हें किसी सजा से कम नहीं लगता होगा। आज तुम मुंह खोल कर सौरी बोल रहे हो, बाकी दिन तो इस औपचारिकता की भी आवश्यकता नहीं समझते’

अमन के चेहरे पर कई रंग आए, कई गए। नए झगड़े की कल्पना से ही मैं भयभीत हो गई। दूसरे कमरे से निकल आए दादा भी अब एक नए विस्फोट को झेलने की कमर कस चुके थे। दादी तो घबराहट से पहले ही रोने जैसी हो गईं। इतनी सी ही देर में हर किसी ने परिणाम की आशा अपनेअपने ढंग से कर ली थी।

लेकिन अमन तो आज जैसे शांति प्रयासों को बहाल करने की ठान चुका लगता था। बिना बौखलाए पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें बिठाते हुए बोला, ‘‘पापा, जैसे आप लोग मुझ से, मेरे व्यवहार से शिकायत रखते हो, वैसा ही खयाल मेरा भी आप के बारे में है।

‘‘मैं बदला तो केवल आप के कारण। मुझे रिजर्व किया तो आप ने। मोबाइल चेपू हूं, लैपटाप पर लगा रहता हूं आदिआदि कई बातें, पर पापा, मैं ऐसा क्यों होता गया, उस पर आप ने सोचना ही आवश्यक नहीं समझा। फ्रेंड्स सर्कल में हमेशा प्रसन्न रहने वाला अमन घर आते ही मौन धारण कर लेता है, क्यों? कभी सोचा?

‘‘आफिस से घर आने पर आप हमेशा गंभीरता का लपश्चाता ओढ़े हुए आते। मां ने आप से कुछ पूछा और आप फोन पर बात कर रहे हों तो अपनी तीखी भावभंगिमा से आप पूछने वाले को दर्शा देते कि बीच में टोकने की प्रयास न की जाए। पर आप की बातचीत का सिलसिला बिना कमर्शियल बे्रक की फिल्म की भांति चलता रहता। दूसरों से लंबी बात करने में भी आप को कोई प्रौब्लम नहीं होती थी लेकिन हम सब से नपेतुले शब्दों में ही बातें करते।

‘‘आप की कठोरता के कारण मां अपने में सिमटती गईं। जब भी मैं उन से कुछ पूछता तो पहले तो लताड़ती ही थीं लेकिन पश्चात में वह अपनी मजबूरी बता कर जब माफी मांगतीं तो मैं अपने को कोसता था।

‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि आप घर की आवश्यकताें एक अच्छे पति, पिता और बेटे के रूप में पूरी करते आए हैं बस, हम सब को शिकायत थी और है आप के रूखे व्यवहार से। मेरे मन में यह सोच बर्फ की प्रकार जमती गई कि ऐसा रोबीला व्यक्तित्व बनाने से औरों पर रोब पड़ता है। कम बोलने से बाकी लोग भी डरते हैं और मैं भी धीरेधीरे अपने में सिमटता चला गया।

मैं ने भी दोहरे व्यक्तित्व का बोझ अपने ऊपर लादना शुरू किया। घर में कुछ, बाहर और कुछ। लेकिन इस नाटक में मन में बची भावुकता मां की ओर खींचती थी। मां पर तरस आता था कि इन का क्या दोष है। दादी से मैं आज भी लुकाछिपी खेलना चाहता हूं,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो कर दादी से लिपट गया

‘‘अच्छा, मैं ऐसा व्यक्ति हूं. तुम सब मेरे बारे में ऐसी सोच रखते थे और मेरी ही कारण से तुम घर से कटने लगे,’’ रोंआसे स्वर में इंद्र बोले

‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पिता के ऐसे व्यवहार के लिए मैं ही सब से अधिक दोषी हूं,’’ अमन को यह कह कर इंद्र की ओर मुखातिब होते हुए दादा बोले, ‘‘मैं ने अपने विचार तुम पर थोपे। घर में हिटलरशाही के कारण तुम से मैं अपेक्षा करने लगा कि तुम मेरे अनुसार उठो, बैठो, चलो। तुम्हारे हर काम की लगाम मैं अपने हाथ में रखने लगा था

‘‘छोटे रहते तुम मेरा आदेश बजाते रहे. मेरा अहं भी संतुष्ट था। मित्रों में गर्व से मूंछों पर ताव दे कर अपने आज्ञाकारी बेटे के गुणों का बखान करता। पर जैसे जैसे तुम बड़े होते गए, तुम भी मेरे प्रति दबे हुए आक्रोश को  व्यक्त करने लगे।

‘‘तुम्हारी समस्या सुनने के बजाय, तुम्हारे मन को टटोलने की जगह मैं तुम्हें नकारा साबित कर के तुम से नाराज रहने लगा। धीरेधीरे तुम विद्रोही होते गए। बातबात पर तुम्हारी तुनकमिजाजी से मैं तुम पर और कठोरी करने लगा। धीरेधीरे वह समय भी आया कि जिस कमरे में मैं बैठता, तुम उधर से उठ कर चल पड़ते। मेरा हठीला मन तुम्हारे इस आचरण को, तुम्हारे इस व्यवहार को अपने प्रति आदर समझता रहा कि तुम बड़ों के सामने सम्मानवश बैठना नहीं चाहते

‘‘लेकिन आज मैं समझ रहा हूं कि स्कूल में विद्यार्थियों से डंडे के जोर पर नियम मनवाने वाला प्रधानाचार्य घर में बेटे के साथ पिता की भूमिका सही नहीं निभा पाया

‘‘पर जितना दोषी आज मैं हूं उतना ही दोष तुम्हारी मां का भी रहा. क्यों? इसलिए कि वह आज्ञाकारिणी बीवी बनने के साथसाथ एक आज्ञाकारिणी मां भी बन गई? एक और पति की गलतसही सब बातें मानती थी तो दूसरी और बेटे की हर बात को सिरमाथे पर लेती थी’

‘‘हां, आप सही कह रहे हैं। कम से कम मुझे तो बेटे के लिए गांधारी नहीं बनना चाहिए था। जैसे आज शिल्पी अमन के व्यवहार के कारण भविष्य में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित है, उस समय मेरे मस्तिष्क में दूरदूर तक यह बात ही नहीं थी कि इंद्र का व्यवहार भविष्य में कितना घातक हो सकता है। हम सब यही सोचते थे कि इस की पत्नी ही इसे संभालेगी लेकिन शिल्पी को गाड़ी के पहियों में संतुलन स्वयं ही बिठाना पड़ा,’’ प्रशंसाभरी दृष्टि से दादी शिल्पी को देख कर बोलीं

हां अमन, शिल्पी ने इंद्र के साथ तालमेल बिठाने में जो कुछ किया उस की तो तेरी दादी प्रसंसा करती हैं। यह भी सच है कि इस दौरान शिल्पी कई बार टूटी भी, रोई भी, घर भी छोड़ना चाहा, इंद्र से एक बारगी तो तलाक लेने के लिए भी अड़ गई थी लेकिन तुम्हारी दादी ने उस के बिखरे व्यक्तित्व को जब से समेटा तब से वह हर समस्या में सोने की प्रकार तप कर निखरती गई,’’ ससुरजी ने एक छिपा हुआ अतीत खोल कर रख दिया

‘‘अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस झूठे अहम की दीवारों को अब गिराना एक आवश्यकता बन गई है। जीवन में केवल प्यार का ही स्थान सब से ऊपर होना चाहिए। इसे जीवित रखने के लिए दिलों में एकदूसरे के लिए केवल सम्मान होना चाहिए, हठ नहीं,’’ अमन बोला

‘‘अच्छा, यदि तुम इतनी ही अच्छी सोच रखते थे तो तुम हठीले क्यों बने,’’ पापा की ओर से दगे इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अमन हौले से मुसकराया, ‘‘तब क्या मैं आप को बदल पाता? और दादा क्या आप यह मानते कि आप ने अपने बेटे के लिए कुशल पिता की नहीं, प्रधानाचार्य की ही भूमिका निभाई? यानी दादा से पापा फिर मैं, इस खानदानी गुंडागर्दी का अंत ही नहीं होता,’’ बोलतेबोलते अमन के साथ सभी हंस पड़े

मेरी प्रसन्नता का तो ओरछोर ही न था, क्योंकि आज मेरा मकान वास्तव में एक घर बन गया था-संकलित

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प्रेषक-
 दिनेश बरेजा 




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