🔆🔆🔆 जय श्री राम 🔆🔆🔆🔆
नगरी सोच
हमारे रिश्ते को जैसे किसी की दृष्टि लग गई थी एक समय में लोग हमें सास बहू नहीं बल्कि मित्र कहा करते थे। हाथ में हाथ डाले हम बाजार में ऐसे घूमते जैसे कितनी पक्की सहेलियां है।
ना मेरी बहू कभी मेरी बात काटती और मैं भी हमेशा छोटी-छोटी बातें दिल में नही रखा करती थी।
हर दिवाली पर वह मुझसे मिलने आती । वर्ष भर में एक मिलन, वर्ष भर तक स्मरण रहती । हम सब मिलकर दिवाली की छोटी-छोटी तैयारियों में अपनी प्रसन्नियां ढूंढ लेते। मैं अपने आप को बड़ा भाग्यवान समझती थी कि मुझे इतनी अच्छी मिलनसार
बहु मिली ।आजकल के समय की नई सोच वाली और अब मैंने भी स्वयं को उन लोग के अनुसार से परिवर्तित कर लिया था। छोटी-छोटी बातों को मैं अनसुना अनदेखा कर देती थी जिससे कि घर में खट पट ना हो।
जीवन चैन से कट रही थी पर परिवर्तित होना तो जीवन का दूसरा नाम है और वह परिवर्तन तो जीवन में आना ही था । समय का चक्र चला और मैं जीवन में अकेली रह गई। मेरा हमसफ़र मुझे छोड़कर चला गया। बेटे ने जिद्द किया कि आकर मैं उन्हीं के साथ रहूं , मैं मन ही मन निश्चिंत थी क्योंकि मैं अपनी बहू के व्यवहार से भलीभांति परिचित थी। मुझे ऐसा लगा कि मैं बेटे के साथ नहीं अपनी बेटी के साथ रहने जा रही हूं।
स्टेशन पर दोनों मुझे लेने आए थे पर अप्रत्याशित रूप से मेरी बहू कुली से ₹10 के लिए लड़ गयी। मुझे इस प्रकार की बहस मेहनतकश व्यक्तिों से करना अच्छा नहीं लगता। मैं कभी भी भिखारियों को भीख नहीं देती लेकिन मेहनत करने वालों का हक भी नहीं मरती थी, उन्हें कुछ बढ़ा कर ही दे देती ।
रिक्शावाला हो, कुली हो, या पुनः सफाई कर्मी, मैं प्रयास करती हूं कि उन्हें किसी ना किसी प्रकार कुछ मदद कर सकूं। जब बात बहुत बढ़ गई तो मैंने उसे ₹10 निकाल कर दिए और कहा कि अब चलो अच्छा नहीं लग रहा । बेटा बोला "अरे मां तुम नहीं जानती यहां नगर में सब बहुत लूटते हैं" ।
हम सब घर पहुंच गए । मेरा मन आते ही थोड़ा सा खिन्न हो गया पर मैंने सोचा कि यदि ऐसी छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाऊंगी तब तो यहां रहना कठिनता हो जाएगा ।
मुझे 10:00 बजे की चाय पीने की गुण थी ।सुबह की चाय के उपरांत दूसरा राउंड चाय का ना हो तो मेरा मन नहीं भरता था। मैंने चाय बनाई उसी समय कामवाली बर्तन धोने आ गई, मैंने कहा "क्यों री कमला चाय पिएगी"। वह कुछ नहीं बोली। मैंने अपने लिए चाय बनाई तो मैंने एक प्याला उसे भी पकड़ा दिया।
तभी अचानक बहु पीछे से आई और बोली मम्मी जी चाय का करार नहीं है। मैं उसे देखती रह गई । उसने कहा चाय का करार नहीं है ,यहां करार करके काम पक्का होता है। उसी अनुसार से पगार दी जाती है । मैं सोचने लगे कि मेरी बहू कब से इन छोटी-छोटी बातों का अनुसार रखने लगी। मैंने कुछ भी नहीं कहा पर चाय का स्वाद फीका पड़ गया।
ऐसे ही कई बार कभी, सब्जीवाली से, कभी मेहरी से, पांच दस रुपये के लिए बहुत झगड़ा करती । हद तो तब हो गई जब एक बार पड़ोस की Mrs विमला चाय की पत्ती मांगने आ गई। उनके यहां चाय समाप्त हो गई थी और मेहमान आ गए थे। मैं पलटी थी तभी बहू आ गयी औऱ बोली अरे बिमला चाची पत्ती तो हमारे यहां भी आज समाप्त हो गई है। देखिए यदि अभी मैं जाऊंगी तो आपके लिए भी लेती आऊंगी।
मैं उसे देखते ही रह गई । अरे कल ही तो चायपत्ती आई थी। वह भी ढाई सौ ग्राम डिब्बे में मैंने आज ही भरी थी । जब Mrs विमला चली गई तो वह कहने लगी -"अरे मम्मी जी आप जानती नहीं, यह प्रतिदिन मांगने चली आती हैं और मांगा हुआ सामान वापस भी नहीं करती"
अजीब चलन था यहां का। कोई किसी की मदद करने को तैयार नहीं, सब की अपनी ही सोच थी। कोई किसी और के लिए कुछ करना ही नहीं चाहता था।
खैर दिन बीतते रहे और दिवाली आ गई । दिवाली के समय तो मेरे बेटे को अच्छा बोनस भी मिला । इससे बहू बहुत चहक रही थी। हमने सबने प्लान बनाया कि क्यों ना मॉल घूमने चलें। वहीं पर दिवाली की शॉपिंग भी करेंगे ,भोजन खाएंगे, पिक्चर देख कर आ जाएंगे।
इतने दिनों में मुझे भी एक परिवर्तित होाव की बहुत अवश्यत थी। मैंने सोचा यह लोग तो बड़े कंजूस हो चुके हैं । भोजन तो क्या ही बाहर खाएंगे! शॉपिंग भी ना जाने किस प्रकार करते होंगे ? हो सकता है सड़क के किनारे से सामान खरीद लें क्योंकि पैसे तो एक-एक बचा रहे हैं संभवतः मेरे बेटे को पैसे की कुछ तंगी है, जो मैं समझ नहीं पा रही लेकिन मैं हतप्रभ रह गई या देखकर कि उस दिन तो मेरे बेटे बहु ने जल की प्रकार पैसे बहाए।
दस रुपये के लिए बहस करने वाली मेरी बहू ने दो सौ के तो पॉपकॉर्न खरीद लिए। उस पर कोल्ड ड्रिंक ,चिप्स और ना जाने क्या-क्या । खाली एक पिक्चर देखने में ही हमारे दो हज़ार खर्च हो गए। उसके उपरांत आई कपड़ों की बारी। कपड़े भी उसने चुन चुन के बड़े सुंदर खरीदे और बिग बाजार से सामान तो ऐसे ले रही थी जैसे वहां सब कुछ मुफ्त मिल रहा हो। ट्रॉली में समान भर्ती जाती। बिल भी अच्छा खासा हो गया, पर ना बेटे ने, ना बहू ने कुछ कहा!
मैंने मन मे सोचा- सच में नगर वालों की मानसिकता ऐसे ही हो गई है, गरीब सड़क किनारे वालों से तो 5 बार पैसे के लिए लड़ जाते हैं ,काम वाली को एक कप चाय देने में इनकी हालत खराब हो जाती है और मॉल में आकर अपनी मेहनत से लाई हुई गाढी कमाई जल की प्रकार खर्च कर देते हैं।
_वस्तुओं का उपयोग तथा सम्बन्धों से स्नेह होना चाहिए जबकि नगरी चकाचौन्ध में हम सम्बन्धों का उपयोग तथा वस्तुओं से स्नेह करने लगे।प्रगतिशील दिखने के आडम्बर में ऐसे फंसे हैं की अपने से निर्धन से तो 2 पैसे कम कराने का प्रयास करते है तथा जिनसे स्वयं निर्धन है उनके समक्ष धनी होने के आडम्बर में अतिरिक्त व्यय। मैं दिनेश बरेजा ये मानता हूं कि जिस घर से गौमाता तथा कुत्ते की रोटी, चींटियों के लिये मुट्ठीभर आटा, शनिदेव के लिये आधा कटोरी तेल, सफाई कर्मचारी के लिये एक कप चाय तथा कबूतर के लिए दाना इत्स्मरणि प्रतिदिन निकलता हो वो देसी घी के भंडारे करने महलों के प्रवासियों से कहीं अच्छा है। जो प्राप्त है-वही पर्याप्त है।
प्रेषक-
दिनेश बरेजा
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