अनुवादक

शनिवार, 18 जून 2022

“ अनभिज्ञ से आत्मिक स्नेह ” कहानी ~ नमः वार्ता

 

🔆💥 जय श्री राम 🔆💥


 “ अनभिज्ञ से आत्मिक स्नेह  ” कहानी ~ नमः वार्ता


"अम्मा!.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।"

डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते अपनी साईकिल रोक दी। अपने नेत्रों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी नेत्रों में अचानक एक चमक सी आ गई..

"बेटा!.पहले थोड़ा बात करवा दो।"

अम्मा ने उम्मीद भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा..

"अम्मा!. इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि,. हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं।"

डाकिए ने अम्मा को अपनी शीघ्रता बताना चाहा

लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी..

"बेटा!.बस थोड़ी देर की ही तो बात है।"

"अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!"

यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..

"लो अम्मा!.बात कर लो लेकिन अधिक बात मत करना,.पैसे कटते हैं।"

उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।

"पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!"

यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए।

रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का संकेत किया..

"अब क्या हुआ अम्मा?"

"यह सौ रुपए रख लो बेटा!" 

"क्यों अम्मा?" उसे आश्चर्य हुआ।

"हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,.कुछ तो खर्चा होता होगा ना!"

"अरे नहीं अम्मा!.रहने दीजिए।"

वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया। 

अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।

वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..

उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक मुख मण्डल सामने खड़ा था।

मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह आश्चर्यचकित हुआ.. 

"भाई महोदय आप यहां कैसे?. आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना?"

"मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है।" 

रामप्रवेश की दृष्टिें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..

"जी पूछिए भाई महोदय!"

"भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?"

"मैंने क्या किया है भाई महोदय?" 

रामप्रवेश के प्रश्निया दृष्टि का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।

"हर महीने आप इस अम्मा को भी अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों?"

रामप्रवेश का प्रश्न सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया!. 

मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी..

"मैं रुपए इन्हें नहीं!.अपनी अम्मा को देता हूंँ।"

"मैं समझा नहीं?"

उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश आश्चर्यचकित हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा...

"इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक मित्र की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।"

उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई..

"कैसे चिट्ठी?.क्या लिखा था उस चिट्ठी में?"

"संक्रमण की कारण से उनके बेटे की जान चली गई!. अब वह नहीं रहा।"

"पुनः क्या हुआ भाई?" 

रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..

"हर महीने चंद रुपयों का प्रतीक्षा और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी साहस नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी ओर से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।"

"लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?"

"मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को!. लेकिन अब मेरी अम्मा भी कहां रही।" यह कहते हुए उस डाकिया की नेत्रें भर आई।

हर महीने उससे रुपए ले अम्मा से उनका बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिया का एक अनभिज्ञ अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया-संकलन आभार श्रीमान अरुण जी


कहीं पढ़ा था-


 "पैसा भी आवश्यक है" 

 अवश्यकत भी आवश्यक है 

 मशीनी दौर है साहेब 

 ख्वाइशें पुनः भी अधूरी है 


 रह गयी किसको कहाँ 

 अब दरकार अपनो की ? 

 ओढ़कर मुस्कान रिश्तों की 

 दिखना सुंदर आवश्यक है 

 क्या कीजियेगा  ... 

 होकर उत्साहती  ..इस समय मे.. 

 बस उम्र बीती जा रही है 

 प्लास्टिक कमाने में 


_आज मानव के पास अति आधुनिक जीवन जीने की हजारों कल्पनायें है, पर जीने के लिए उसकी यह कल्पनायें क्या उसे कोई सुख का अनुभव दे रही है ? मानव, वर्तमान के सुख से अनभिज्ञ होकर, अपने अनिश्चित भविष्य की तलाश में प्राप्त सुख की गरिमा भूल जाता है, और दुखी जीवन व्यतीत करने लगता है। यद्यपि भारतीय जीवन दर्शन में अर्थ को तीसरा सुख जरुर माना, परन्तु ह्रदय से नहीं, विवशता से, क्योंकि साधनों से जीवन को गति मिलती है, और नियमित जीवन को लय मे रखने से ही जीवन अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकता है, इसे हम इस युग की आवश्यकता कह सकते है। ऐसे ही स्नेह, वात्सल्य की भावना है, किसी स्त्री का अपने पुत्र के प्रति जो लगाव या प्यार है, उसे स्नेह शब्द से निरूपित कर सकते है। मेरा मानना है कि अनभिज्ञ व्यक्ति से आत्मीयता दर्शाने से अनदेखे,अनकहे सुख की अनुभूति होती है। एक बार आप भी प्रयास करके देखिए -दिनेश बरेजा_

प्रेषक-

 दिनेश बरेजा 


उपर्युक्त प्रकाशित लेख में कोई त्रुटि है या विवादस्प लगे, तो टिप्पणी बॉक्स में अवश्य लिखे इसी के साथ अपने लेख प्रकाशित करवाने के लिए भी संपर्क कर सकते है।




📒 https://namahvarta.blogspot.com                                                                                                                                                                            🐦 https://twitter.com/NamahVarta                                                                                                                                                                                📜 https://t.me/namahvartah                                                                                                                                                                                            📔 https://fb.com/NamahVarta                                                                                                                                                                                         🎬  https://youtube.com/channel/UC66OK1dAeQmBiaSV2yuRKOw

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें