अनुवादक

बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

कहानी - शहरी सोच ~ द्वारा दिनेश बजेरा

शहरी सोच

हमारे रिश्ते को जैसे किसी की नजर लग गई थी एक जमाने में लोग हमें सास बहू नहीं बल्कि दोस्त कहा करते थे। हाथ में हाथ डाले हम बाजार में ऐसे घूमते जैसे कितनी पक्की सहेलियां है।
ना मेरी बहू कभी मेरी बात काटती और मैं भी हमेशा छोटी-छोटी बातें दिल में नही रखा करती थी। 

हर दिवाली पर वह मुझसे मिलने आती । साल भर में एक मुलाकात, साल भर तक याद रहती । हम सब मिलकर दिवाली की छोटी-छोटी तैयारियों में अपनी खुशियां ढूंढ लेते। मैं अपने आप को बड़ा भाग्यवान समझती थी कि मुझे इतनी अच्छी मिलनसार बहु मिली ।

आजकल के जमाने की नई सोच वाली और अब मैंने भी खुद को उन लोग के हिसाब से तब्दील कर लिया था। छोटी-छोटी बातों को मैं अनसुना अनदेखा कर देती थी जिससे कि घर में खट पट ना हो।

जिंदगी चैन से कट रही थी पर बदलाव तो जिंदगी का दूसरा नाम है और वह बदलाव तो जिंदगी में आना ही था । समय का चक्र चला और मैं जिंदगी में अकेली रह गई। मेरा हमसफ़र मुझे छोड़कर चला गया। बेटे ने जिद्द किया कि आकर मैं उन्हीं के साथ रहूं , मैं मन ही मन निश्चिंत थी क्योंकि मैं अपनी बहू के व्यवहार से भलीभांति परिचित थी। मुझे ऐसा लगा कि मैं बेटे के साथ नहीं अपनी बेटी के साथ रहने जा रही हूं।

स्टेशन पर दोनों मुझे लेने आए थे पर अप्रत्याशित रूप से मेरी बहू कुली से ₹10 के लिए लड़ गयी। मुझे इस तरह की बहस मेहनतकश इंसानों से करना अच्छा नहीं लगता। मैं कभी भी भिखारियों को भीख नहीं देती लेकिन मेहनत करने वालों का हक भी नहीं मरती थी, उन्हें कुछ बढ़ा कर ही दे देती ।

रिक्शावाला हो, कुली हो, या फिर सफाई कर्मी, मैं कोशिश करती हूं कि उन्हें किसी ना किसी तरह कुछ मदद कर सकूं। जब बात बहुत बढ़ गई तो मैंने उसे ₹10 निकाल कर दिए और कहा कि अब चलो अच्छा नहीं लग रहा । बेटा बोला "अरे मां तुम नहीं जानती यहां शहर में सब बहुत लूटते हैं" ।

हम सब घर पहुंच गए । मेरा मन आते ही थोड़ा सा खिन्न हो गया पर मैंने सोचा कि अगर ऐसी छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाऊंगी तब तो यहां रहना मुश्किल हो जाएगा ।

मुझे 10:00 बजे की चाय पीने की आदत थी ।सुबह की चाय के बाद दूसरा राउंड चाय का ना हो तो मेरा मन नहीं भरता था। मैंने चाय बनाई उसी समय कामवाली बर्तन धोने आ गई, मैंने कहा "क्यों री कमला चाय पिएगी"। वह कुछ नहीं बोली। मैंने अपने लिए चाय बनाई तो मैंने एक प्याला उसे भी पकड़ा दिया।

तभी अचानक बहु पीछे से आई और बोली मम्मी जी चाय का करार नहीं है। मैं उसे देखती रह गई । उसने कहा चाय का करार नहीं है ,यहां करार करके काम पक्का होता है। उसी हिसाब से पगार दी जाती है । मैं सोचने लगे कि मेरी बहू कब से इन छोटी-छोटी बातों का हिसाब रखने लगी। मैंने कुछ भी नहीं कहा पर चाय का स्वाद फीका पड़ गया।

ऐसे ही कई बार कभी, सब्जीवाली से, कभी मेहरी से, पांच दस रुपये के लिए बहुत झगड़ा करती । हद तो तब हो गई जब एक बार पड़ोस की Mrs विमला चाय की पत्ती मांगने आ गई। उनके यहां चाय खत्म हो गई थी और मेहमान आ गए थे। मैं पलटी थी तभी बहू आ गयी औऱ बोली अरे बिमला आंटी पत्ती तो हमारे यहां भी आज खत्म हो गई है। देखिए अगर अभी मैं जाऊंगी तो आपके लिए भी लेती आऊंगी।

मैं उसे देखते ही रह गई । अरे कल ही तो चायपत्ती आई थी। वह भी ढाई सौ ग्राम डिब्बे में मैंने आज ही भरी थी । जब Mrs विमला चली गई तो वह कहने लगी -"अरे मम्मी जी आप जानती नहीं, यह रोज मांगने चली आती हैं और मांगा हुआ सामान वापस भी नहीं करती" 

अजीब चलन था यहां का। कोई किसी की मदद करने को तैयार नहीं, सब की अपनी ही सोच थी। कोई किसी और के लिए कुछ करना ही नहीं चाहता था।

कुछ दिन बीते और दिवाली आ गई । दिवाली के समय तो मेरे बेटे को अच्छा बोनस भी मिला । इससे बहू बहुत चहक रही थी। हमने सबने प्लान बनाया कि क्यों ना मॉल घूमने चलें। वहीं पर दिवाली की शॉपिंग भी करेंगे ,खाना खाएंगे, पिक्चर देख कर आ जाएंगे।

इतने दिनों में मुझे भी एक बदलाव की बहुत जरूरत थी। मैंने सोचा यह लोग तो बड़े कंजूस हो चुके हैं । खाना तो क्या ही बाहर खाएंगे! शॉपिंग भी ना जाने किस तरह करते होंगे ? हो सकता है सड़क के किनारे से सामान खरीद लें क्योंकि पैसे तो एक-एक बचा रहे हैं शायद मेरे बेटे को पैसे की कुछ तंगी है, जो मैं समझ नहीं पा रही लेकिन मैं हतप्रभ रह गई या देखकर कि उस दिन तो मेरे बेटे बहु ने पानी की तरह पैसे बहाए।

दस रुपये के लिए बहस करने वाली मेरी बहू ने दो सौ के तो पॉपकॉर्न खरीद लिए। उस पर कोल्ड ड्रिंक ,चिप्स और ना जाने क्या-क्या । खाली एक पिक्चर देखने में ही हमारे दो हज़ार खर्च हो गए। उसके बाद आई कपड़ों की बारी। कपड़े भी उसने चुन चुन के बड़े सुंदर खरीदे और बिग बाजार से सामान तो ऐसे ले रही थी जैसे वहां सब कुछ मुफ्त मिल रहा हो। ट्रॉली में समान भर्ती जाती। बिल भी अच्छा खासा हो गया, पर ना बेटे ने, ना बहू ने कुछ कहा!

मैंने मन मे सोचा- सच में शहर वालों की मानसिकता ऐसे ही हो गई है, गरीब सड़क किनारे वालों से तो 5 बार पैसे के लिए लड़ जाते हैं ,काम वाली को एक कप चाय देने में इनकी हालत खराब हो जाती है और मॉल में आकर अपनी मेहनत से लाई हुई गाढी कमाई पानी की तरह खर्च कर देते हैं।

वस्तुओं का उपयोग तथा सम्बन्धों से स्नेह होना चाहिए जबकि शहरी चकाचौन्ध में हम सम्बन्धों का उपयोग तथा वस्तुओं से स्नेह करने लगे।प्रगतिशील दिखने के आडम्बर में ऐसे फंसे हैं की अपने से निर्धन से तो 2 पैसे कम कराने का प्रयास करते है तथा जिनसे स्वयं निर्धन है उनके समक्ष धनी होने के आडम्बर में अतिरिक्त व्यय। मैं दिनेश बरेजा ये मानता हूं कि जिस घर से गौमाता तथा कुत्ते की रोटी, चींटियों के लिये मुट्ठीभर आटा, शनिदेव के लिये आधा कटोरी तेल, सफाई कर्मचारी के लिये एक कप चाय तथा कबूतर के लिए दाना इत्यादि प्रतिदिन निकलता हो वो देसी घी के भंडारे करने महलों के प्रवासियों से कहीं अच्छा है। जो प्राप्त है-वही पर्याप्त है।

लेखक ~ दिनेश बजेरा

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