🔆💥 जय श्री राम 🔆💥
“ रिश्तों के टुकड़े सँजोती बहु ” कहानी ~ नमः वार्ता
चालीस पार मोहन ने अंत अपने आँफिस की सहकर्मी सुधा से विवाह कर ही ली....सुधा जहां एक अनाथ लडकी थी अपने चाचा चाची के पास पली बडी वही दूसरी ओर मोहन की केवल माताजी है पिताजी का स्वर्गवास उसके छोटी उम्र मे ही हो गया था ....
सुधा ने आते ही घर का सारा काम बहुत अच्छे से संभाल लिया ....वह अपनी बीमार सासूमां का अच्छे से ध्यान रखती..... लेकिन विवाह के बीते एक वर्ष उपरांत उसने एक गुण बना ली थी वो अब अपनी सासूंमां के पास बैठकर कुछ नहीं खाती थी पहले तो दोनों सास-बहू साथ में ही भोजन खाती थी.... सुधा की सास सुषमा जी पहले रसोई के काम में हाथ भी बंटवाती थी इसलिए उनको सब पता होता था कि रसोई में किस डब्बे में क्या रखा है लेकिन अब बीमारी के कारण वो रसोई में भी नही जा पाती थी....
मां जी.... ये लीजीए चाय-बिस्किट....
शाम को हाल में अपनी सास सुषमा जी को चाय-बिस्किट पकड़ाकर सुधा स्वयं थोड़ा दूर अपनी चाय लेकर पीने बैठ गई.... वो एक लाल रंग के डब्बे में से निकालकर स्वयं भी कुछ खा रही थी सुधा को कुछ खाता देख उसकी सास सोंच रही थी....
पता नही ....ये सुधा बहु मुझे बिस्किट देकर स्वयं क्या खा रही है....
मै तो उठ कर देख नही सकती....ओह....संभवतः इसी बात का लाभ उठाती है....
सुषमाजी के सास के मस्तिष्क की घंटी टन- टन बजने लगी....
"अवश्य कुछ अच्छा हीं खा रही होगी तभी तो मुझसे दूर बैठती है....
मुई..... बुढ़ापे में ये नेत्रेें भी तो कमजोर हो गई है साफ साफ कुछ दिखता भी नही
रात को भी चैन नहीं मिल रहा था कभी तो सोचती .... छोड़ो ना कुछ भी हो....मुझे तो समय पर सब कुछ मिल ही जाता है...
लेकिन दूसरे ही पल मन में आता अरे....ऐसे कैसे छोड़ दूं अंत पता तो चले डिब्बे में क्या है....
अंत उनसे रहा नहीं गया तो टसकते- मसकते पहुंच हीं गई रसोई में....
मन ही मन बक्के जा रही थी... "कौन सा डब्बा था हां ...लाल रंग का था.....मिल गया....
लेकिन थोड़ा ऊपर है हाथ हीं नहीं आ रहा
कांपते हाथों से उतारने की प्रयास कर रहीं थीं कि डिब्बा धड़ाम से नीचे गिर गया....ध...डा....म....
हे भगवान...... ये क्या....ये टुकड़े किस चीज के है....
इतनी देर में सुधा और मोहन आवाज सुनकर भागते हुए आए.....
क्या हुआ मांजी.... कुछ चाहिए क्या...सुधा बोली...
हां.....बहु....वो ....दवाई से मुंह कड़वा हो गया था इसलिए शक्कर का डिब्बा ढूंढ रहा थी... सकपकाते हुए सुषमा जी ने कहा
मांजी....मुझे बोल दिया होता......एक आवाज दी होती ....खैर कल से मैं आपके कमरे में मिश्री रख दिया करूंगी
बल्ब की रौशनी में ध्यान से उन बिखरे हुए टुकड़ों को देखा तो पाया कि मीठे - नमकीन बिस्किट के बचे हुए टुकड़े है... सुधा फटा- फट उन बिखरे टुकड़ों को साफ करने में जुट गई...
बिखरे हुए वो बिस्किट के टुकड़े मानो कांच की प्रकार सुषमा जी के मन को भेद रहे थे....
कितना गलत सोंच रही थी मै....
बहु मुझे साबुत बिस्किट देकर स्वयं टूटे और बचे हुए टुकड़े खाती है...छी....अपनी ओछी सोंच पर सुषमा जी को लज्जा आ रही थी
दूसरे दिन शाम को जब सुधा ने सुषमा जी को चाय- बिस्किट दिए तो सुषमा जी ने कहा....
बहु मेरे दांतो से बिस्किट शीघ्र से टूटते नहीं, तो तुम मुझे वो टुकड़े दे दिया करो
अरे नही मांजी..... वो तो जब भी कोई नया पैकेट खोलती हूं कुछ टुकड़े निकल ही जाते हैं बस उन्हें अलग डिब्बे में रख देती हूं ....
आपके पास तो कोई ना कोई आता रहता है....कोई देखेगा तो अच्छा नहीं लगता.....हमारे घर परिवार के सम्मान के बारे मे कोई कुछ गलत सोचे ये अच्छा नही हैं... मैं तो अंदर की ओर बैठकर खा लेती हूं कोई आने वाला होता है तो डिब्बा बंद कर देती हूं...सुधा ने प्रसन्न हुए कहा
सुधा की बात सुनकर चाय पीते-पीते सुषमा जी की नेत्रों के कोर भीग गए....
ऐसी बहु पाकर वो स्वयं को आज दुनिया की सबसे प्रसन्नप्रकारत सास समझ रही थी, साक्षात ग्रहलष्मी जो भाग्य के टुकड़ो में भी रिश्ते संजो रही थी
ये रिश्ता ही ऐसा होता है कि कई बार बहू अपनी सास को नहीं समझ पाती और कई बार सास भी अपनी बहू को नहीं परख पाती। रिश्ते में आई इस उलझन को समझना बहुत कठिन है। क्योंकि कई बार दोनों ही अपने-अपने प्वांट्स पर सही दृष्टि आती हैं। जेनरेशन गैप, सोच का अंतर, परिवेश का अंतर के साथ परवरिश का अंतर इन रिश्तों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है क्योंकि दोनों को एक साथ रहना है और एक दूसरे से अधिक संपर्क में रहना है इसलिए वैचारिक मतभेद होना संभव है। औरतें किसी भी घर को चाहे तो स्वर्ग बना सकती हैं और किसी भी घर को चाहे तो नर्क बना सकती है। वो घर की महिलाएं ही होती है जो किसी व्यक्ति के जीवन को बेहतर बना सकती है। पत्नी के रुप में जहां एक महिला हर कदम पर अपने पति का साथ देती है और उसे जीवन का सही मार्ग दिखाती हैं तो वहीं बेटी के रुप में वह लक्ष्मी के समान होती है-दिनेश बरेजा
प्रेषक-
दिनेश बरेजा
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